एन. रघुरामन का कॉलम:समझना होगा कि हम मशीनों पर गुस्सा नहीं कर सकते

‘डिंग डॉन्ग’.. दरवाजे बाईं ओर खुलेंगे’ क्या ये आवाज और इस घोषणा से आप परिचित हैं? जी हां, ये आम तौर पर मेट्रो ट्रेन में सुनाई देती है। इस शनिवार को जब बेंगलुरु में ‘ग्रीन लाइन’ मेट्रो सर्विस के वाजरहल्ली स्टेशन पर मेट्रो रुकी तो बिल्कुल ऐसी ही घोषणा हुई। यात्रियों ने धैर्य से दरवाजे खुलने का इंतजार किया, क्योंकि ट्रेन के पूरी तरह से रुकने के कुछ सेकंड बाद सिस्टम दरवाजे खोलता है। लेकिन किसी अज्ञात तकनीकी खराबी के कारण मेट्रो के कुछ दरवाजे नहीं खुले। ट्रेन चल पड़ी, जैसे हर स्टॉप के बाद चलती है, बिना यह जाने कि पीछे के डिब्बों में कोई तकनीकी खराबी आ गई है। उतरने को बेताब यात्री स्तब्ध रह गए, उन्होंने वहीं किया, जिसमें वो अच्छे हैं- घबरा गए! इसके बाद कुछ यात्रियों ने दिमाग में खुराफाती विचारों के साथ चीखना शुरू कर दिया और भीड़ भी उनके पीछे हो चली। किसी ने नहीं सोचा कि ये तर्कसंगत है भी या नहीं। और बेंगलुरु भी कोई अलग नहीं था। घबराए यात्री तेजी से भाग कर मेट्रो पायलट (मेट्रो ट्रेन के चालक को पायलट कहा जाता है) के केबिन के पीछे वाले लेडीज कोच में पहुंचे और पायलट केबिन का दरवाजा पीटना शुरु किया, जैसे वो किसी ऐसे ‘घोड़े बेचके सोने वाले’ रूममेट को जगाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे यह पता नहीं कि घर में आग लगी है। धक्कामुक्की और हंगामे से डरे पायलट ने सोचा कि कुछ भयंकर हुआ है और उसने ब्रेक लगा दिए, जिससे ट्रेन एक निर्जन से स्थान पर जाकर रुक गई। जैसे ही उसने सावधानी से अपने केबिन का गेट खोला, उसके सामने गुस्साए यात्री खड़े थे, जो इस बात का जवाब मांग रहे थे कि क्यों उन्हें पिछले स्टेशन पर नहीं उतरने दिया गया। इसके बाद कुछ मिनटों तक तीखी नोकझोंक हुई। और आप जानते हैं कि जब भीड़ एकत्रित होती है तो कोई एक व्यक्ति तर्कसंगत तरीके से बात नहीं कर सकता। पायलट ने यह समझाने की विफल कोशिश की कि उसे पीछे हुई समस्या के बारे में पता नहीं था और जब यात्री उसके केबिन के दरवाजे को पीटने लगे तो उसने ब्रेक लगाए। चूंकि वह ट्रेन को वापस पीछे नहीं ले जा सकता था, इसलिए पायलट ने सभी यात्रियों से अपने-अपने डिब्बों में लौटने के लिए कहा। पायलट ने यात्रा फिर शुरू की और अगले स्टेशन पर ट्रेन रोक दी। वही आंदोलनरत यात्री तत्काल इकट्ठा हो गए, पायलट के केबिन की ओर भागे और प्लेटफॉर्म पर खड़े होकर उससे गलती के लिए स्पष्टीकरण मांगने लगे। उनमें से कुछ पिछले स्टेशन पर वापसी के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए भी कह रहे थे। लोको पायलट ने पूरा मामला स्टेशन कंट्रोलर को रिपोर्ट किया, जिसने आकर स्थिति संभाली और वापसी की यात्रा में यात्रियों को ट्रेन में चढ़ने में यथासंभव सहायता की। भारत में अभी 17 शहरों में 17 मेट्रो रेल सिस्टम संचालित हो रहे हैं, जिनकी कुल परिचालन दूरी 939.18 किमी की है। 2025 के अंत तक 18वीं ऐसी सेवा की शुरुआत के साथ ही कुल परिचालन दूरी 1000 किलोमीटर से अधिक हो जाएगी, जिससे हमारा मेट्रो सिस्टम दुनिया का तीसरा सबसे लंबा सिस्टम बन जाएगा। भारत में अर्बन रेल ट्रांजिट सिस्टम का पहला प्रकार उपनगरीय रेल थी, जो 16 अप्रैल 1853 को तत्कालीन बॉम्बे (आज के मुम्बई) में बनी था। कोई यह भी नहीं भूल सकता कि हमारे पास 1873 में कलकत्ता (आज के कोलकाता) में घोड़ों द्वारा खींची जाने वाली ट्राम सेवा भी थी। आवागमन के मामले में तब से अब तक भारत मशीन और तकनीकी की सहायता से बहुत आगे बढ़ चुका है। विदेशों में ऐसी तकनीकी गड़बड़ियां सामान्य हैं। हाल ही मैंने ऐसी ही एक खराबी न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर स्टेशन पर देखी। वहां यात्रियों को जब ये बताया गया कि तकनीकी कारणों से एक सेवा कुछ घंटों के लिए अस्थायी रूप से बाधित रहेगी तो सभी यात्री शांति से स्टेशन के बाहर आ गए। फंडा यह है कि आप मशीनों पर नाराज नहीं हो सकते। तकनीकी और ऊर्जा पर चलने वाली मशीनों की दुनिया में गड़बड़ी तो होगी ही, भले ही बार-बार ना हो। हमें धैर्य विकसित करना होगा और सीखना होगा कि ऐसी स्थितियों पर कैसे प्रतिक्रिया दें। अन्यथा ये दुनिया हम पर हंसेगी।
ओपिनियन | दैनिक भास्कर

Author: admin

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